Wednesday, July 16, 2014

कथाकार मधुकर सिंह को जसम की श्रद्धांजलि




प्रगतिशील जनवादी धारा के मशहूर कथाकार मधुकर सिंह आज 15 जुलाई को अपराह्न पौने चार बजे हमारे बीच नहीं रहे। आरा जिले के धरहरा गाँव स्थित अपने निवासस्थान पर उन्होंने अंतिम साँसें लीें। विगत पांच-छह वर्षों से मधुकर सिंह अस्वस्थ थे, उन पर पैरालाइसिस का आघात हुआ था। लेकिन अस्वस्थता की स्थिति में भी उन्होंने आखिरी सांस तक लेखन कार्य जारी रखा। सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक बदलाव के लिए संघर्षरत लोगों के लिए वे हमेशा प्रेरणास्रोत रहेंगे। 

मधुकर सिंह फणीश्वरनाथ रेणु के बाद हिंदी के उन गिने चुने साहित्यकारों में से थे, जिन्होंने आजीवन न केवल ग्रामीण समाज को केंद्र बनाकर लिखा, बल्कि वहां चल रहे राजनीतिक-सामाजिक बदलाव के संघर्षों को भी शिद्दत के साथ दर्ज किया। उन्होंने भोजपुर के क्रांतिकारी किसान आंदोलन को स्वाधीनता आंदोलन की निरंतरता में देखा और अपनी रचनाओं में इसे चिह्नित किया कि जब 1947 के बाद भी सामाजिक विषमता और उत्पीड़न खत्म नहीं हुआ और शासकवर्ग का दमनकारी चरित्र नहीं बदला, तो फिर से आजादी की एक नई लड़ाई भोजपुर में शुरू हुई। नक्सलबाड़ी विद्रोह ने उसे आवेग प्रदान किया। मधुकर सिंह के साहित्य का बहुलांश भोजपुर के मेहनतकश किसानों, खेत मजदूरों, भूमिहीनों, मेहनतकश औरतों और गरीब, दलित-वंचितों के क्रांतिकारी आंदोलन की आंच से रचा गया। सामंती-वर्णवादी-पितृसत्तात्मक व्यवस्था से मुक्ति के लिहाज से मधुुकर सिंह की रचनाएं बेहद महत्व रखती हैं। स्त्री की मुक्ति के सवाल को मधुकर सिंह ने दलित मुक्ति से अभिन्न रूप से जोड़कर देखा। दलितों, स्त्रियों, अल्पसंख्यकों की सामाजिक मुक्ति का संघर्ष इनके कथा साहित्य में जमीन के आंदोलन से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ रहा है। सामंती-पूंजीवादी व्यवस्था के सबसे निचले स्तर पर मौजूद मेहनतकशों की सामाजिक-आर्थिक मुक्ति वर्ग-समन्वय के किसी रास्ते से संभव नहीं है, मधुकर सिंह की कहानियां बार-बार इस समझ को सामने लाती हैं।


2 जनवरी 1934 को बंगाल प्रांत के मिदनापुर में जन्मे मधुकर सिंह ने जीवन के आठ दशक का ज्यादातर समय बिहार के भोजपुर जिला मुख्यालय आरा से सटे अपने गांव धरहरा में गुजारा। सोनभद्र की राधा, सबसे बड़ा छल, सीताराम नमस्कार, जंगली सुअर, मनबोध बाबू, उत्तरगाथा, बदनाम, बेमतलब जिंदगियां, अगिन देवी, धर्मपुर की बहू, अर्जुन जिंदा है, सहदेव राम का इस्तीफा, मेरे गांव के लोग, कथा कहो कुंती माई, समकाल, बाजत अनहद ढोल, बेनीमाधो तिवारी की पतोह, जगदीश कभी नहीं मरते समेत उन्नीस उपन्यास और पूरा सन्नाटा, भाई का जख्म, अगनु कापड़, पहला पाठ, असाढ़ का पहला दिन, हरिजन सेवक, पहली मुक्ति, माइकल जैक्सन की टोपी, पाठशाला समेत उनके ग्यारह कहानी संग्रह और प्रतिनिधि कहानियों के कुछ संग्रह भी प्रकाशित हैं। लाखो, सुबह के लिए, बाबू जी का पासबुक, कुतुब बाजार आदि उनके चर्चित नाटक हैं। ‘रुक जा बदरा’ नामक उनका एक गीत संग्रह भी प्रकाशित है। उनकी कई कहानियों के नाट्य मंचन भी हुए हैं। वे जन नाट्य संस्था युवानीति के संस्थापकों में से थे। मधुकर सिंह ने कुछ कहानी संकलनों का संपादन भी किया। बच्चों के लिए भी दर्जनों उपन्यास और कहानियां उन्होंने लिखी। उनकी रचनाओं के तमिल, मलयालम, कन्नड़, तेलुगु, मराठी, पंजाबी, उडि़या, बांग्ला, चीनी, जापानी, रूसी और अंग्रेजी में अनुवाद हो चुके हैं। उन्होंने ‘इस बार’ पत्रिका के अतिरिक्त कुछ पत्र-पत्रिकाओं का संपादन भी किया। हमेशा प्रगतिशील-जनवादी साहित्यिक-सांस्कृतिक आंदोलन से जुड़े रहे कथाकार मधुकर सिंह जन संस्कृति मंच की स्थापना के समय से ही इसके साथ थे। उन्होंने जसम के राष्ट्रीय परिषद और कार्यकारिणी के सदस्य बतौर अपनी जिम्मेवारियां निभाई और लंबे समय तक राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रहे। सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, फणीश्वरनाथ रेण पुरस्कार, कर्पूरी ठाकुर पुरस्कार समेत उन्हें कई सम्मान और पुरस्कार मिले। पिछले ही साल आरा में उन्हें जन संस्कृति सम्मान से सम्मानित किया गया था और उनके साहित्यिक योगदान का मूल्यांकन किया गया था। 
जन संस्कृति मंच जनता के संघर्षों के हमसफर, साथी और अपने अत्यंत प्रिय लेखक मधुकर सिंह को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है.
(जसम के केन्द्रीय कार्यकारिणी की ओर से सुधीर सुमन द्वारा जारी)

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